1) व्यापार बाणिज्य पर प्रभाव: नये देशों की खोज एवं नये व्यापारिक संपकों ने
यूरोपीय व्यापार-वाणिज्य में क्रांतिकारी परिवर्तन लाये। उपनिवेशों के आर्थिक शोषण से यूरोपीय देश समृद्ध होने लगे। इस प्रगति ने यूरोपीय व्यापार को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया। फलस्वरूप मुझ व्यवस्था का विकास हुआ। हुंडी, ऋणपत्र आदि व्यापारिक साख का विकास हुआ। व्यापार अपने स्थानीय स्वरूप से विकसित हो कर वैश्विक रूप लेने लगा। नये देशों की खोज के पूर्व व्यापार मुख्य रूप से भूमध्यसागर और बाल्टिक सागर तक ही सीमित था, परन्तु अब इसका स्थान अटलांटिक, हिंद तथा प्रशांत महासागरों ने लिया । फलतः पेरिस, लंदन, एम्सटरडम, एंटवर्प आदि शहर विश्वव्यापी व्यापार के प्रमुख केन्द्र बन गए और यूरोपीय व्यापार पर इटली का एकाधिकार जाता रहा। इसके बदले स्पेन, पुर्तगाल, हॉलैंड-इंग्लैंड तथा फ्रांस का प्रभाव बढ़ गया। कालांतर में अपने विशाल साम्राज्य को संभालने में स्पेन और पुर्तगाल इतने निमग्न हो गए कि इन्होंने अपना साम्राज्य ही खो दिया। यूरोपीय देशों द्वारा खोजे गए नये देशों से आयातित बहुमूल्य धातुओं विशेषकर अमेरिका से आयातित सोना तथा चांदी ने अर्थव्यवस्था के स्वरूप को ही बदल दिया। फलतः 80 वर्षों तक यूरोपीय अर्थव्यवस्था चांदी पर निर्भर रही। इससे मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो गई। बदले हुए आर्थिक स्वरूप में व्यापार की प्रधानता बनी और वर्ग संबंधों में परिवर्तन आने लगे। इसके फलस्वरूप समाज के सामंती वर्ग के बदले में व्यापारी वर्ग का प्रभाव बढ़ा।